अभी जब बिहार सरकार ने
गौरैया को राजकीय पक्षी घोषित किया तो अचानक ही बचपन की कई स्मृतियाँ कौंध गईं। हम में से बहुत से लोग शायद
ही इसे गौरैया के नाम से जानते हैं। खूबसूरत पक्षियों की भीड़ में इस साधारण सी दिखने वाली छोटी
सी चिड़िया को हम कई स्थानीय नाम 'फुरगुड्डी',
चुनमुन चिरई और न जाने कौन कौन से नाम से जानते हैं। अँग्रेजी में इसे Sparrow कहते हैं। घरों में रहने वाली इसकी एक प्रजाति 'House Sparrow' कहलाती है। यह छोटी सी चिड़िया हमारी
जिंदगी का हिस्सा हुआ करती थी। शायद आपकी भी जिंदगी का हिस्सा रही हो।
सुबह-सुबह चूँ-चूँ की आवाज़ से जगा दिया करती
थी। कभी उड़ कर इस कोने तो कभी उड़ कर उस कोने। पुराने घरों में बीच में आँगन हुआ
करता था और उसके चारों ओर कमरे हुआ करते थे। आँगन से उड़ कर घर में आ जाया करती थी
गौरैया। हमारे घर में अंदर के बरामदे में बेसिन के साथ एक आईना हुआ करता था। फुदक–फुदक
कर उस आईने में अपनी छवि देख कर चोंच मारा करती थी। कई बार तो तीन-चार गौरैया एक
साथ मिल कर आईने में चोंच मारा करती। शायद दूसरी तरफ अपने जैसी ही कोई चिड़िया देख
कर उत्सुक हो जाती थी। कई बार तो तंग आकर हमलोग आईने को कपड़े से ढ़क दिया करते थे।
तो भी चोंच से कपड़े को हटा कर आईने में चोंच मारा करती थी। माँ जब चावल चुनती और चावल के
कंकरों को फेंकती तो फुदक कर उस पर टूट पड़ती। फिर माँ थोड़ा चावल के दाने भी छिड़क
देती, जिसे खा कर वो फुर्र से उड़ जाया करती थी। कई बार आपस में खेलती, लड़ती और काफी शोर करती, तो मेरी बहन
उसे डांट देती। पता नहीं कैसे वो चुप भी हो जाया करती थी। परेशानियाँ
भी होती थीं, पर उसकी चूँ-चूँ अच्छी भी लगती थी। गाँव जाया करता
तो वहाँ भी दिखती थी। उस जमाने में जब बच्चों के लिए आज की तरह ज्यादा खिलौने नहीं हुआ करते थे, तो यही चिड़िया मन बहलाने का काम
करती थी। कई लोग रोते हुए बच्चों से कहा करते-'आ रे चिरइयाँ, आ, बऊआ ला, बिस्कुट
ले आ' और यह सुन कर बच्चे चुप हो जाते।
तब माता या पिता बच्चे की बगल में बिस्कुट रख दिया करते, जिसे देख कर बच्चों को ऐसा लगता
जैसे सचमुच चिड़िया ने ही बिस्कुट ला कर दिया हो। एक स्वाभाविक आत्मीयता हो जाती थी
बच्चों की, इस चिड़िया के साथ। गौरैया जब
अनाज के दाने चुगती तो बच्चे उसे पकड़ने की कोशिश करते। पर फुर्र से उड़ जाती
थी गौरैया। एक सहज ही खेल का माहौल हो
जाता। पर आजकल बहुत कम दिखती है गौरैया। न जाने कब वो हमारी
जिंदगी से दूर होती गयी। प्रकृति के साथ हम मनुष्यों
का यह रिश्ता भी न जाने कब खतम हो
गया।
कोंक्रीट के जंगल बढ़ते चले गए। घरों की
डिज़ाइन में परिवर्तन हो गया। अब शायद ही किसी घर में खुला आँगन होता है। इन घरेलू
परिंदों के ठिकाने खतम हो गए। आजकल मोबाइल के बढ़ते टावर के रेडियशन से भी इनकी
संख्या घट रही है। मनुष्यों के साथ रहना पसंद करने वाली इस चिड़िया की घटती हुई संख्या
निश्चित ही चिंता का विषय है। तो क्या इस संबंध में कुछ किया जा सकता है। अगर
इच्छाशक्ति हो तो निश्चय ही कुछ हो सकता है।
वर्ष 2010 से 20 मार्च को 'विश्व
गौरैया दिवस' के रूप में मनाने की शुरुआत
हुई है। डाक विभाग ने भी गौरैया पर एक डाक टिकट जारी किया था।
ऐसे में बिहार सरकार द्वारा गौरैया को राजकीय पक्षी घोषित करना एक स्वागत योग्य
कदम माना जा सकता है। पर सिर्फ इस से ही काम नहीं चलेगा। हमलोगों को भी अपने
स्तर से प्रयास करना होगा। आज हम लोग अपने अपार्टमेंट में/घरों में गमले में पौधे लगते हैं।
सुबह शाम उसमें पानी डाल कर उसे सींचते हैं। बाज़ार से खरीद कर तोता या कुत्ता लाते हैं और उन्हें
पालते हैं। यह एक प्रयास ही तो है प्रकृति से जुड़े रहने का। तो
क्या हम अपनी इस स्वाभाविक सदस्य के लिए कुछ नहीं कर सकते, जिसे किसी बाज़ार से खरीद कर नहीं
लाना है। बस अपनी जिंदगी का, अपने घर का थोड़ा सा स्थान देना है। मुझे लगता
है कि थोडी कोशिश तो जरूर कर सकते हैं।
गौरैया !
ReplyDeleteविवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्र
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
मो ९४२५४८४४५२
बिन पाले जो रहती घर में ,ऐसी चिड़िया है गौरैया
चितकबरे पंखो वाली पर , सुंदर चिड़िया है गौरैया
दादी दाने रोज डालती , खा लेती पर हाथ न आती
पकड़ नही पाता कोई उसको , फट से उड़ जाती गौरैया
आंगन में करती है कलरव , भोर भये चें चूं का उत्सव
तिनका तिनका जोड़ बनाती , ड्राइंग रूम में घर गौरैया
सुबह निकलती , रात से पहले , लौट घोंसले में आ जाती
नन्हीं है , पर समझदार है , कुनबे में रहती गौरैया
चिड़वा , चिड़ी , चिरैया , गौरा , कई नामो से जानी जाती
हमने बचपन में देखी जो , पहली चिड़िया , वो गौरैया
vivek ranjan shrivastava