Saturday, November 6, 2010

प्रवासियों के पर्व Vs वासियों के पर्व

अमेरिका हो या इंग्लैंड, यु0ए0ई० हो या क़तर, कनाडा हो या नोर्वे या फिर मुंबई हो या बंगलुरु जहाँ भी बिहारी लोग जाते हैं अपनी संस्कृति को बरक़रार रखने का पूरा प्रयास करते हैं. भले ही कार्य करने का ढंग बदल जाता हो पर मूल में श्रद्धा वही होती है. हो सकता है अमेरिका, इंग्लैंड में दुर्गा, लक्ष्मी या गणेश की बड़ी मूर्तियाँ न मिल पायें, हो सकता है वहां बड़े-बड़े पंडाल और लाइटिंग की सुविधा न हो पर दिल में उत्साह वही रहता है, जिसे लेकर प्रवासी लोग अपने छोटे से समूह में ज़मा होते हैं और पूरे उत्साह से पर्व मनाते हैं. त्योहारों के मौसम के आते ही आप तमाम बिहारी संगठनों की वेबसाइट पे त्यौहार मिलन के कार्यक्रम की सूचना देख सकते हैं. लोग किसी रेस्टुरेंट, किसी पार्क या किसी के घर पे जमा होते हैं, एक दूसरे को मुबारकबाद देते हैं, भगवान की फोटो [कभी- कभी ये फोटो डिजिटल भी होती है] लगाईं जाती है, CD या DVD प्लयेर पर मन्त्रों का उच्चारण होता है, पर दिल में श्रद्धा उतनी ही होती है, जितना वो बिहार में रहते हुए रखते हैं. इन आयोजनों में मेहँदी प्रतियोगिता, म्यूजिकल चेयर इत्यादि का आयोजन किया जाता है. बच्चों को देवी, देवता का रूप देकर सजाया जाता है. केक काटा जाता है. यदा-कदा DJ का भी प्रबंध होता है. बिहार से सम्बंधित फिल्मों को दिखाया जाता है. यूँ कहें तो वहां उपलब्ध सुविधा के हिसाब से जितना हो सके बिहार के रंग में रंगने की कोशिश की जाती है.

अमेरिका में रहने वाले एक मित्र ने ऐसे ही एक आयोजन में बिहार से आने वाले एक मित्र के हाथों 'अनरसा' (बिहार में मिलने वाली एक मिठाई) मँगवाया था. ओवेन में पके लिट्टी चोखा का भी इंतजाम था. तमाम तरह के लज़ीज़ व्यंजन थे. पर आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उन व्यंजनों के बीच अनरसा सबसे जल्दी ख़त्म हो गया था और लोग फिर भी उसकी ही डिमांड कर रहे थे. ओवेन में पके लिट्टी-चोखा में अपने घर में कोयले पे पकने वाले लिट्टी-चोखा का स्वाद खोज रहे थे. ऐसे त्योहारों के मौकों पर होने वाले इस मिलन में तमाम तरह के व्यंजनों के बीच लिट्टी-चोखा और अनारसा का होना ही इस बात को साबित करता है कि प्रवासी लोग पर्व के मौके पे पूरी तरह से अपने बिहार के रंग में रंगने की कोशिश करते हैं. अभी हाल में ही अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, बहरैन, UK में दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था. अब दिवाली मनाई जाने वाली है. ऑस्ट्रेलिया के एडिलेड तथा सिडनी में दिवाली मिलन पूरे उल्लास से मनाया गया है।

वहीँ बिहारवासियों ने भी अपने अंदाज में दुर्गा पूजा मनाई और दिवाली तथा छठ की तैयारी चल रही है. बिहार में होने वाली दुर्गा पूजा को आप पटना की दुर्गा पूजा के माध्यम से मेरे पिछले पोस्ट में देख चुके हैं. जिन्होंने नहीं देखा है वो कृपया इस लिंक पे जाएँ - http://biharfoundation.blogspot.com/2010/10/blog-post_17.html. आगे अब दिवाली धूमधाम से मनाई जा रही है. जगह-जगह लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों के दुकान सज गए हैं. लोग अपने-अपने घरों की रंगाई-पुताई करवा रहे हैं. परदे कैसे लगेंगे, दीवारों पर कौन सा रंग चढ़ेगा, दिवाली में रंगोली कैसी सजेगी, छत पे कैंडिल कैसा लगेगा, जलते-बुझते बल्बों की लड़ियों को कहाँ पे लगायें. ऐसी तमाम छोटी-बड़ी चीज़ों पे घर में बहस होती है. फिर सबकी सहमति से निर्णय लिया जाता है. दीपों की सजावट से घर को रौशन करना है ताकि माँ लक्ष्मी घर में प्रवेश करें. पंडित जी की अडवांस बुकिंग चल रही होती है. पटाखों की दुकाने सज गयी हैं. बच्चों ने पापा मम्मी की नाक में दम कर दिया है. मुझे तो बम ही लेना है. फुलझरी की रौशनी से उतना मज़ा नहीं आता, जितना बम की आवाज से आता है. पूरा मोहल्ला गूंज उठता है. पड़ोस के अंकल की गुस्से भरी आवाज से तो और मज़ा आता है. पटाखा पहले से नहीं फोड़ेंगे तो पता कैसे चलेगा की दिवाली आ गयी है. ऐसे दृश्य आम हो जाते हैं. हमारे बचपन में भी कुछ ऐसा ही होता था. पहले शिवकाशी से बने पटाखे आते थे. मुर्गा छाप पटाखें. अब तो चाइनीज पटाखें हैं. अनार से अब रंग-बिरंगी रौशनी निकलती है. फुलझरियां और बम का फ्यूज़न हो गया है. पहले रौशनी निकलती है, बाद में धमाके की आवाज भी आती है. हमारे समय में ऐसा गलती से हुआ करता था, पर अब तो ऐसे पटाखें डिमांड से बनते हैं.

त्योहारों के आते ही प्रोडक्ट्स पे ऑफरों की बाढ़ आ जाती है. टीवी के साथ वाशिंग मशीन फ्री. सोने के गहने लेने पे एक गणेश जी फ्री. और न जाने क्या-क्या. धनतेरस को तो कुछ खरीदना ही पड़ता है. इतनी मंहगाई बढ़ गयी है, की लोग असमंजस में पड़ गए हैं की क्या लें. पर कुछ तो लेना ही है, इसलिए बोरिंग रोड हो या एग्जिबिसन रोड या फिर पटना मार्केट या हटुआ मार्केट सभी जगह भारी भीड़ चल रही है. ऐसा ही हाल लगभग हर शहर का होता है. दुकानदारों को फुर्सत नहीं है. आपको अपना सामान मिल गया तो बड़ी खुशनसीबी. नहीं तो दुकान वाले को भला बुरा कहते हुए दूसरे दुकान में घुसिए. धनतेरस के दिन मेरी बीबी ने भी फरमाइश की - घर जल्दी आ जायियेगा, तनिष्क में चलेंगे. मन में डर हुआ कि पता नहीं कितनी जेब ढीली होगी. पर रिवाज़ है भाई. कुछ न कुछ तो लेना ही पड़ता है. वरना लक्ष्मी जी (घरवाली भी और मंदिर वाली भी) नाराज़ हो जाएँगी. और भला लक्ष्मी माता को नाराज कौन करना चाहेगा. इसी लक्ष्मी के लिए तो वासियों को प्रवासी बनना पड़ता है. घर के बाकी लोग पीछे छूट जाते हैं. दोस्त यार सब रह जाते हैं.
पर्व के समय ये कमी खलती है. वासी माता-पिता, प्रवासी बच्चों को मिस करते हैं. काश इस बार तो बेटा दिवाली में साथ होता, वहीँ प्रवासी बच्चे भी वासी माता-पिता को याद करते हैं (इस पर एक आपबीती घटना सुनाऊंगा कभी) काश घर जाते तो छठ के ठेकुआ, पिडुकिया तो खाते. घाट पे जाते. बहनें भैया दूज पर अपने भाइयों को याद करती हैं. बजरी-लड्डू कौन खायेगा इस बार. शायद इसी कमी को पूरा करने के लिए लोग परदेस में भी इक्कठे हो जाते हैं। एक दूसरे में उन रिश्तों को तलाशते हैं। जिस तरह संभव हो पाए उसी तरह पर्व मनाते हैं।
अक्सर वासी लोग प्रवासियों को देख कर सोंचते हैं कि काश हम भी अमेरिका, इंग्लैंड जा पाते. खूब पैसे कमाते पर जरा प्रवासियों से भी तो पूछ कर देखिये. पर्व तो वहां भी मना ही लेते हैं पर मन में यही सोंच होती है कि काश हम भी घर पे होते. ये डिसाइड करते की कौन सा रंग लगेगा. दोस्तों से मिलते, मेला घूमते, ये करते, वो करते, काश! हम भी घर पे होते.

Friday, October 22, 2010

बिहार लौटते प्रबुद्ध युवा

कुछ दिनों पहले निर्माण फौन्डेशन के राकेश प्रकाश, आयुष आनंद और मनीष कुमार जब मुझसे मिलने आये तो इन युवाओं को देख कर मैं थोडा सशंकित हुआ कि पता नहीं जिस मुद्दे पे ये बात करने आये हैं उसको लेके ये कितने सजग हैं। कम उम्र पर योजना बड़ी। ये लोग अमेरिका में रह रहे एक प्रवासी बिहारी वैज्ञानिक के संरक्षण में "बिहार साइंस चैलेन्ज" नाम से एक कार्यक्रम का आयोजन बिहार में करना चाहते थे। उद्देश्य था १० से १७ साल के युवा बिहारियों के दिमाग में एक वैज्ञानिक सोंच को बढ़ावा देना, जिसके माध्यम से बिहार की कुछ मूलभूत समस्याओं के लिए एक मौलिक समाधान खोजना। इस प्रतियोगिता के बिषय भी बड़े रोचक रखे हैं इन्होने, जैसे - 'बिहार गो ग्रीनर', 'इनोवेटिव टेक्निक फॉर इर्रिगेशन', 'पटना ट्राफिक मनेजमेंट, 'रेन वाटर हार्वेस्टिंग', 'कैच द क्रिमिनल्स इन सिक्सटी सेकेण्ड', 'पॉवर ओउतेज सोलुशन'। पुरष्कार की राशि भी आकर्षक है।- प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले को ५१०००, द्वितीय को २१००० और तृतीय को ११०००। इसके अलावे १५ लोगों के लिए सांत्वना पुरष्कार भी है। नवम्बर में होने वाले इस आयोजन से उम्मीद है की इससे बिहारी बच्चों में कुछ वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होगा। साथ ही बिहार की कुछ समस्याओं का अच्छा समाधान मिल जाये.

बातचीत के क्रम में पता चला की ये सभी आई आई टी से पास और एक बड़े ही प्रतिष्ठित कम्पनी में काम कर रहे थे। उनमे से एक मनीष कुमार अभी भी ONGC में काम कर रहे हैं। तो फिर ये सब अच्छी सैलरी और प्रतिस्था वाली नौकरी छोड़ के बिहार में क्यूँ काम करने आ गए। अजी साहब ये नया पैशन है प्रबुद्ध युवाओं का। नया जोश, सब कुछ बदल देने का जज्बा। या शायद वो दर्द जो इस पीढ़ी ने झेला है बिहारी होने के नाते। हर जगह अपनी पहचान छुपाये, डरे सहमे, न जाने किस बात के लिए बलि का बकरा बना दिया जाये। पर शायद इन मुश्किलों से जूझते हुए ही लड़ने की ताकत आ गयी है। और खड़े हो गए हैं अपने बिहार को बचाने के लिए। इसके विकास के लिए योगदान देने के लिए। या शायद वो खोयी हुई प्रतिस्था फिर से पाने के लिए, जब बिहारी कहलाना गर्व की बात होती थी.


बरबस ही याद आ गयी डॉ० रवि चंद्रा की, जिन्होंने IRMA से कोर्स करने के बाद अच्छी नौकरी छोड़ 'बिहार देवलोपमेंट ट्रस्ट' नाम से संस्था बना कर बिहार के गरीब लोगों को स्वरोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से माइक्रोफिनांस के क्षेत्र में काम शुरू किया। आज वो काफी अच्छा काम कर रहे हैं। उम्मीद करता हूँ की आनेवाले दिनों में वो कुछ वैसा कर पायें जैसा की बंगलादेश के मोहम्मद युनुस ने अपने देशवासियों के लिए किया था।

इन्ही युवाओं में दो ऐसे नाम हैं जिनसे आप सभी परिचित हैं। एक हैं आई आई एम् सब्जीवाले के नाम से मशहूर नालंदा जिले के कौशलेन्द्र और दूसरा बेगुसराई के इरफ़ान आलम। आई आई एम् अपने आप में ही एक ब्रांड है। सभी जानते हैं कि उसके नाम पे लोगों को कितने अंकों वाला वेतन मिल सकता है, पर उसे छोड़ के बिहार में ऐसा काम शुरू करना जिसके बारे में ज्यादा लोग सोंच भी नहीं सकते। पर आज सभी जानते हैं की उनके इस प्रयास से कितने ही किसानों की जिंदगी बदल गयी। हो सकता है भविष्य में बिहार सब्जी के सबसे बड़े उत्पादक और बाज़ार के रूप में उभर कर सामने आये। जिस प्रकार फलों खास कर नारंगी ने अमेरिका के कैलिफोर्निया का रूप बदल दिया, मुझे लगता है ठीक उसी तरह एक दिन फ़ूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में बिहार का भी नाम होगा, जिसकी शुरुआत के लिए कौशलेन्द्र जैसे युवाओं का नाम जरुर लिया जायेगा। इरफ़ान आलम के सम्मान फौन्देशन ने कितने ही रिक्शा वालों को सम्मान के साथ जीने का हौसला दिया। मुझे याद है किस तरह से इरफ़ान एक चैनल की एक प्रतियोगिता 'बिज़नस बाज़ीगर' के विजेता बने थे। ये बिहारी लोगों का जन्मजात टैलेंट होता है। जहाँ जाते हैं छा जाते हैं। अब तक यह टैलेंट दूसरों के लिए कार्य करता था पर अब यह अपने बिहार के लिए कार्य करने को आतुर है.

एक और प्रगतिशील युवा हैं नितिन चंद्रा। इनका माध्यम थोडा अलग है पर मकसद वही है बिहार की तरक्की। फ़िल्में बनाते हैं। कुछ साल पहले इन्होने एक फिल्म बनाई थी - 'Bring Back Bihar' जिसमे बिहार को वापस लाने की बात रखी गयी थी। बिहार फौन्देशन के लिए भी एक फिल्म बनाई - 'A New Chapter' जो प्रवासी बिहारियों पर आधारित थी और बिहार फौन्देशन के आने से प्रवासियों में जो एक उम्मीद जगी है उसको चित्रित किया गया है। अभी हाल में इन्होने 'Deswa' नाम से एक भोजपुरी फिल्म का निर्माण किया है। जिसमे भोजुपरी को हिंदी सिनेमा के समान्तर ला कर खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। इस फिल्म में उन्होंने बिहारी थीएटर से जुड़े लोगों को मौका दिया है और फिल्म की ज्यादातर शूटिंग बिहार में ही की है। इन्होने और नीतू चंद्रा ने मुंबई में हुई एक मुलाकात में पटना में अपना एक एक्टिंग ट्रेनिंग स्कूल खोलने की इच्छा व्यक्त की थी - चंद्राज़ के नाम से.

ये ट्रेनिंग स्कूल ये लोग मुंबई में भी खोल सकते हैं, पर बिहार को आगे बढाने की इनकी सोंच ही उन्हें बार-बार बिहार ले आती है। हम ऐसी उम्मीद करते हैं कि deswa फिल्म भोजपुरी के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू करेगी।

एक और युवा हैं बिभूति बिक्रमादित्य - द० कोरया में अच्छी खासी नौकरी कर रहे हैं पर बिहार को वापस लाने का जज्बा इन्हें बार-बार बिहार ले आता है. विज्ञान के क्षेत्र में बिहार को आगे ले जाने के उद्देश्य से हर साल 'इंडियन साइंस कौंग्रेस' के तर्ज पर 'बिहार साइंस कौंग्रेस' का आयोजन करते हैं. मैं भी अपने कॉलेज के दिनों में इंडियन साइंस कौंग्रेस का सदस्य हुआ करता था जिसका उद्घाटन प्रतिवर्ष प्रधानमंत्री करते थे और उसमे देश के तमाम वैज्ञानिक और उसमे रूचि रखने वाले लोग इकठ्ठा होते थे. अभी हाल ही में इन्होने पटना ट्रैफिक मैनेजमेंट के लिये अपने सुझाव प्रस्तुत किये हैं. इनकी योजना बिहार में एक टेक्नीकल इंस्टिट्यूट स्थापित करने की भी है. साथ ही कोरया में ये बिहार फौन्देशन को भी फैला रहे हैं।

ऐसे कई युवाओं के मेल मुझे आते हैं जो अभी अपने फ़ाइनल इयर में हैं या किसी प्रतियोगिता परीक्षा के साक्षात्कार में जाने वाले हैं और वो बिहार के लिए कुछ करना चाहते हैं. मेरी उनको निजी सलाह होती है कि पहले वो खुद को करियर में स्थापित करें फिर वो बिहार के लिए ज्यादा अच्छे से योगदान दे पाएंगे. पर सोंचने वाली बात ये है कि आज युवाओं में बिहार के लिए कुछ करने कि प्रवृति बढ़ रही है. ये शायद बिहारी होने का दंश झेलने के कारण हो या फिर जैसी सुविधा और वातावरण वो दूसरे राज्यों या देशों में देखते हैं वैसा ही बिहार में भी बनाना चाहते हो ताकि आने वाली पीढ़ी को वो सब न झेलना पड़े जो हमें झेलना पड़ा है.

Sunday, October 17, 2010

पटना की दुर्गा पूजा

यूँ तो दुर्गा पूजा में कई शहरों में रहने का मौका मिला है। हो सकता है कई जगहों की पूजा में तकनीक और मूर्तिकला का ज्यादा अच्छा उदाहरण (जैसे कोलकाता में) देखने को मिलता हो, पर जो अपनापन बिहार की पूजा में मिलता है वो शायद ही कहीं महसूस होता है. इस बार भी पटना की पूजा में वही अपनापन और जोश देखने को मिल रहा था।

पंडालों की सज्जा हो या मूर्तियों का डिजाईन, हर प्रस्तुति अपने आप में अलग थी। अलग-अलग थीम पर पंडालों की सजावट इस बार भी देखते ही बनती थी।

कहीं पर मंदिरों का डिज़ाइन बनाया गया था तो कहीं कोई दृश्य। 

पर असली आकर्षण तो वो पंडाल थे जहाँ तकनीक का इस्तेमाल कर प्रदर्शन किया गया था. लाइट और साउंड के प्रयोग से दिखाया जा रहा था की किस प्रकार देवी दुर्गा महिसासुर का वध कर रही हैं. जलती बुझती रौशनी के बीच एक त्रिशूल और तीर आके महिसासुर को लगता था. साथ ही बैक ग्राउंड में अट्टहास और अन्य आवाज़ प्रदर्शन को जीवंत बना रही थीं. एक अन्य पंडाल में राक्षश के मुख में गुफा की शक्ल दी गयी थी और अन्दर में देवी की प्रतिमा स्थापित की गयी थी. बाहर के भाग में करीब २०-२५ फीट ऊँचा पहारनुमा आकृति थी जिस पे भागीरथ द्वारा गंगा को धरती पे लाने का दृश्य दिखाया गया था. जलती-बुझती रौशनी और साउंड इफ्फेक्ट के बीच पानी की निकलती धारा गंगा के धरती पे आने का उत्तम प्रदर्शन था. इन जगहों पे लोगों की भीड़ बेकाबू हो रही थी।

कई जगहों पे मूर्तियों की सुन्दरता भी देखते ही बनती थी. साथ की सजावट से इसमें चार चाँद लग गया था. रोड के दोनों तरफ ट्यूब लाइट की रौशनी पुरे पटना को जगमग बना रही थी. मुख्य सड़कों का शायद ही कोई इलाका दिखा जहाँ रौशनी नहीं थी. सड़कों पे पूरी चहल पहल दिख रही थी. कारों और बाइक का काफिला कई जगहों पे अटका पड़ा था. उनकी गति भी पैदल चलने वालों के सामान ही धीमी थी। हाथों में हाथ डाले लोग (जोड़े) अब पटना की सडको में बड़े बेफिक्र हो के घूम रहे थे और पूजा का आनंद उठा रहे थे. मुझे याद है कॉलेज के वो दिन जब इन्ही पटना की सड़कों पे ऐसे लोग शायद ही दिखते थे. इसी भीड़ में कई युवा जोड़ों को पीछे छोड़ता हुआ एक बुजुर्ग जोड़ा एक दूसरे का हाथ पकडे तेज़ी से आगे निकलता हुआ दिखा. माता-पिता या बड़े भाई-बहन अक्सर छोटे भाई-बहनों का हाथ पकड़ कर इसलिए चलते हैं कि कहीं खो न जाएँ. कई लोग इस भीड़ में खो भी जाते हैं. ऐसे में इस बार भी जगह-जगह पे पंडालों में अनाउंस किया जा रहा था खोये हुए लोगों के बारे में. एक जगह पे अनाउंसर कुछ इस तरह से कह रहा था - 'रिन्कुजी आप जहाँ कहीं भी हों पंडाल के गेट पे चले आयें आपके घरवाले बड़ी ही बेशर्मी (शायद वह बेशब्री कहना चाह रहा था) से आपका इंतज़ार कर रहे हैं.' इस तरह से उसने कई बार अनाउंस किया. लोगों को इस तरह कि बात सुनकर बड़ा मज़ा आ रहा था।
बेली रोड पे राक्षश कुल का एक प्राणी अपनी चमकती हुई सींघों के साथ आगे बढ़ रहा था, जिसे देख बच्चे डर जा रहे थे. कुछ बड़े बच्चे चमकने वाली सींघ की दुकान खोज रहे थे. हर बार पूजा में कोई न कोई इस तरह की नयी चीज़ बाज़ार में आती है जो बच्चों और युवाओं का आकर्षण बनती है. जगह-जगह खिलोने, मूर्तियों की दुकाने सजी पड़ी थीं. इनमे बंदूकों की बिक्री शायद सबसे ज्यादा होती है. मुझे याद है हमलोग दुर्गा पूजा से ही अपने पिताजी से बन्दूक खरीदवा लिया करते थे और छठ तक चोर- पुलिस खेला करते थे. आज भी बंदूकों का क्रेज बरक़रार है. छोटे-बड़े तरह-तरह के झूले बच्चे तो बच्चे, बड़ों के भी आकर्षण का केंद्र बने हुए थे. कुछ चीज़ें सदाबहार होती हैं. फर्क सिर्फ तकनीक का आ जाता है. आज के झूले कई तरह के हो गए हैं. गोलगप्पे जिसे पटना में हमलोग फोक्चा के नाम से जानते हैं, चाट पकोरे, आइसक्रीम इत्यादि की दुकाने, ठेले लगे हुए थे और हर बार की तरह लोगों की भीड़ इन सड़क के किनारे मिलने वाले व्यंजनों का आनंद ले रही थी.
नवमी के दिन सुबह से हो रही बारिश से तो लगता था कि इस बार पूजा का मज़ा किरकिरा हो गया, पर शाम होते-होते सबकुछ सामान्य हो गया था और लोगों कि भीड़ उसी उत्साह से पटना घूम रही थी और पटना के दुर्गा पूजा का आनंद उठा रही थी. इस भीड़ में कुछ पराये भी थे कुछ अपने भी।
हम चाहे जहाँ कहीं भी चले जाएँ, कितनी सुविधाओं में क्यूँ न रहने लगें पर पर्व के समय अपने बिहार में रहना ही सबसे ज्यादा खुशी देता है. वो अपनापन, वो लगाव जो यहाँ है, वो शायद कहीं नहीं है. वैसे लोग जो किसी कारणवश घर नहीं आ सके उम्मीद है उन्हें इससे अपने बिहार कि कुछ झलक जरुर मिलेगी. अपने विचार और अनुभव हमें जरुर बताएं. कुछ संकलित तस्वीरों के साथ आपको छोड़ रहा हूँ. आप सबों को दशहरा  की  ढेर सारी शुभकामनायें.

Wednesday, October 6, 2010

प्रवासियों को वोटिंग का अधिकार

प्रवासी भारतीय दिवस करीब आ रहा है। केंद्रीय मंत्री श्री व्यालार रवि अपने सन्देश में कहते हैं - "मुझे बताते हुए ख़ुशी हो रही है की नॉन रेसिडेंट इंडियनस को वोट देने से सम्बंधित बिल संसद ने पास कर दिया है।" हो सकता है एन आर आई के लिए ये ख़ुशी की बात हो, पर क्या वैसे प्रवासियों को वोट देने का अधिकार नहीं है जो अपने ही देश में अपनी ज़मीन से दूर रहते हैं?

मुंबई में रह रहे हसन कहते हैं - इच्छा तो बहुत होती है कि हम अपने क्षेत्र के लिए एक सही प्रतिनिधि चुनें पर इतनी जल्दी जा नहीं सकता, अभी ईद में ही वापस आया हूँ। कुछ इसी तरह कि बात गुडगाँव के एक मल्टी नेशनल कंपनी में काम करने वाले एक इंजिनियर आलोक कहते हैं - दुर्गा पूजा, दिवाली और छठ में से किसी एक पर्व में ही जा पाऊंगा। पर्व के समय टिकेट मिलना बहुत मुश्किल होता है। अभी छठ का टिकट मिला है, पर उस वक़्त मेरे इलाके में चुनाव हो चूका होगा। चाहकर भी भाग नहीं ले सकता। एक अच्छे प्रतिनिधि से ही क्षेत्र का विकास संभव हो पाता है। और सबसे बड़ी बात अपनी पहचान की है। कोई अच्छा प्रतिनिधि ही अच्छी पहचान प्रस्तुत कर सकता है, जिसपे हम प्रवासी लोग भी गर्व कर सकें।
सिर्फ हसन और अलोक ही नहीं ऐसे तमाम लोग हैं जो किसी न किसी मज़बूरी की वजह से वोट नहीं दे पाते हैं । मज़बूरी चाहे नौकरी की हो या पैसे की या फिर हालत की । पर यह सत्य है करोरों लोग अपने उस अधिकार से वंचित रह जाते हैं जिस पे उनका तथा उनकी आने वाली पीढ़ी का भविष्य टिका होता है। ऐसी भीड़ में सिर्फ अपने राज्य से बाहर रहने वाले ही नहीं, अपने ही राज्य के दुसरे जिले में रहने वाले भी तमाम लोग शामिल हैं जो वोटिंग के अधिकार से वंचित रह जाते हैं।
आज जब एन आर आई लोगों के लिए वोट देने का अधिकार दिया जा रहा है तो यह सवाल उठाना भी लाजमी है की सरकार अपने ही देश में रहने वाले प्रवासियों की वोटिंग में भागीदारी सुनिश्चित करे। सम्प्रति केंद्र सरकार विदेशों में स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से एन आर आई को वोट देने की सुविधा देने वाली है। तो फिर कोई ऐसी व्यवस्था क्यूँ नहीं की जा सकती की प्रवासी लोग अपनी कर्मभूमि में रहते हुए भी अपने जन्मभूमि के लिए एक अच्छे प्रतिनिधि का चुनाव कर सकें। आज संचार क्रांति की धूम है। उसका प्रयोग किया जा सकता है। पहले लोग बैलट पेपर का इस्तेमाल करते थे, आज अनपढ़ लोग भी इवीएम् मशीन पे बड़ी ही आसानी से वोट दे रहे हैं। बदलाव आता है तो लोग धीरे-धीरे सीख ही जाते हैं। तो एक बदलाव इस क्षेत्र में और लाया जाये, जिससे की प्रवासियों की वोटिंग में भागीदारी हो सके। वो सिर्फ मजबूरियों की वजह से अपने इस बहुमूल्य अधिकार से वंचित न रह पायें।
आज तमाम सोशल नेट्वोर्किंग साइट्स पे लोग बिहार में होने वाले चुनाव के विषय में बात करते हैं, अपने सुझाव देते हैं, लोगों से अपील करते हैं की उन्हें चुने जो बेहतर हैं पर अपने वोट के बारे में मन मसोस कर रह जाते हैं। अगर सरकार और चुनाव आयोग इसतरह की कोई व्यवस्था कर पाए तो हो सकता है की नतीजा कुछ सकारात्मक निकले। एक सर्वे के मुताबिक लगभग ४५ से ५० लाख लोग २००९ में बिहार से बाहर गए। प्रतिवर्ष काफी बड़ी संख्या में लोग बिहार से बाहर जाते हैं। चुनाव आयोग के अनुसार आज बिहार में साढ़े ५ करोड़ मतदाता हैं। अगर पिछले चुनाओं के प्रतिशत पे ध्यान दें तो पाएंगे की औसतन २० से ३० प्रतिशत लोग ही वोट दे पा रहे हैं। तो क्या वोट ना दे पाने वालों में एक बड़ी संख्या उनकी है जो माइग्रेट कर गए हैं। तब तो यह और भी आवश्यक हो जाता है की माइग्रेट करने वालों को वोट देने की कोई व्यवस्था की जाये। अगर दुसरे नजरिये से देखेंगे तो क्या जो प्रतिनिधि चुन कर आते हैं वो सिर्फ मुठी भर लोगों द्वारा ही नहीं चुने जाते हैं? तो फिर कैसा लोकतंत्र हुआ यह? क्या ऐसी स्थिति में सरकार और चुनाव आयोग की जिम्मेदारी नहीं बनती की ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाये जिससे की एक वैसा प्रतिनिधि चुना जा सके जो ज्यादातर ( कम से कम ५०% से ज्यादा) लोगों द्वारा चुना जाये। तभी शायद लोकतंत्र अपने सही रूप में कहा जा सकेगा और प्रवासियों को वोट देने की व्यवस्था करना इसमें एक सार्थक कदम हो सकता है।

Sunday, July 4, 2010

Vishwas Yatras, an enriching experience

The last two months – devoted to the ‘Vishwash Yatras’ - have been excruciatingly hectic… reason why I could hardly interact on the blog। But these have been truly and immensely insightful.

Honestly speaking, I felt duty-bound to undertake this campaign। On assuming charge as the CM, I had promised that I would not go back to the people to seek their votes for another term if I realized that my government had failed to deliver. The benchmarks were laid out by the Vikas Yatra undertaken then by us…॥ This Vishwash Yatra (after four and a half years of our government) therefore became essentially an exercise in self appraisal and assessment.

Having concluded the Yatra, I have today, like most of our brethren in the state, a fairly modest sense of assertion that Bihar is very much on the way to better, more secure times। One could easily sense that across sectors, schemes and programmes, the foundations that have been laid are strong enough to sustain progresses over time. You would surely appreciate that laying down the footings was the most critical and yet most consuming of the tasks cut out for any new government here.

Of course, I am not entirely satisfied, and a lot is still to be done। Having said that, rapid growths in key spheres achieved over the past four-and-a-half years do not escape notice anymore. Importantly, we are also witnessing a very positive social assertion, thanks particularly to the empowerment of our womenfolk, and a genuinely growing sensitivity among the rural poor towards education. I have always maintained that only when the masses begin to have a natural sense of ownership can any development sustain. It feels good that bettering health services, transport and communication infrastructures, etc are there to aid this social change.

It is vital to note here that this social transformation, or for that matter, any development, would not have been possible without peace in society। I had shared in one of my previous posts that ensuring lasting peace was a critical bottom-line for my administration. I am happy at the yields today.

In the course of my Vishwas Yatra, I wanted to review the development projects launched by the state government in different districts. This would have been possible only by visiting different areas, interacting with people and reviewing the progress of the work with the district officials.
The format of the Vishwas Yatra enabled me to achieve my objective। I started off my yatra with a visit to a village in the morning during which the chief secretary or the development commissioner used to accompany me. These top bureaucrats sometimes were in such villages where even a block development officer may hardly ever have turned up in the past.

This enabled us to oversee projects and schemes, identify problems on the spot and take suitable immediate steps. It was essentially a reality check even as we took governance to people’s doorsteps.
A review meeting with the district officials after the visit to the village was part of the yatra। It was the first time a chief minister held such a meeting at the district headquarters. I had fixed 23 subjects to assess the development works in a district. Each meeting used to last for at least four hours during which we identified bottlenecks and tried to remove them.

I used to address a public rally at the district headquarters in the evening before dropping in on a local associate or a party worker’s house for dinner। At the outset, it was originally planned that I would address only one rally at the district headquarters. But I invariably ended up addressing two rallies in a day. henever I went to a village in the morning, I always found a large crowd waiting patiently for us. During these two rallies, I used to address at least 30,000 people a day.

The Vishwas Yatra was, however, not merely an exercise to review the development projects or to get a feedback of the people on my government’s performance। It was also an opportunity to feel the winds of changes across the state. During this yatra, I experienced many positive changes. There are a few examples which come quickly to my mind.

I visited Dharhara village in Bhagalpur district where people planted ten trees of fruits for every girl child born there. This was a novel concept which was not only environment-friendly but was also aimed at safeguarding the future of the girl child. Its novelty apart, it is so intimately contextual in our times that I wouldn’t be amazed if this model is soon showcased as an ideal social practice in many part of India.

I also visited the house of a schoolgirl Khushboo at her Bhogaon village in Katihar district। Khushboo was the second topper in this year’s matriculation examination. She fought against all odds to achieve this distinction. Her school was located five kilometre away from her village but that was no deterrent for her. She said the bicycle that she got under the Mukhyamantri Balika Cycle Yojna helped her in her preparation for the examination. She could save her time earlier spent on commuting and devoted it towards her studies. I had a sense of satisfaction when I handed over the cheques to her for her achievements….and a hope that she becomes a role model for many youngsters.

My visit to Aurahi Hingna in Araria district, the native place of the great Hindi litterateur Phanishwar Nath Renu was a very emotional experience. Renuji had penned down several novels and stories like Maila Anachal and Parti Parikatha, depicting the lives of the people from the underprivileged sections of society in the Kosi belt. I chose to travel by road in the Kosi belt to see the region so vividly described in Renu’s masterpieces.

I met two of Renu ji’s wives -- Padmaji and Latikaji -- at the village. When I touched their feet, they blessed me affectionately. They later send local delicacy patua ka sag & roti for me in circuit house. Since the region has been famous for kattha (catechu), I decided to develop a forest for khairwood which will be known as “Renuvan”…. a small tribute to Renuji’s great legacy.

I must admit however that some other experiences have been terribly moving as well। I visited a village in Munger district where scores of people were disabled because of the excessive fluoride content in water. I was dismayed to learn that successive government had failed to provide safe drinking water to the village. .There are other areas in the state where arsenic content in water is posing health problems to a large number of people.

This is why I said in the beginning that I am not fully satisfied. A lot of things are to be done, and we are already in the process of prioritizing some of these.

On a more personal note, I must share with you that I have not taken any leave as such during my tenure. I once went to Mumbai for a day to receive an award, and stayed in Bangalore for a night for a wedding. I also went to Punjab and Kolkata for election campaigns and visited Mauritius once as part of an official delegation.
I have been working everyday without a break, thinking often of the philosophy of “aharnish seva (uninterrupted work through day and night)”। I understand this will need to go on, without any let up…. in the hope of more and more people joining together to bring a brighter future for all of us.

Until next, Thank you।

Nitish Kumar

Saturday, May 1, 2010

राज्य मे अपराध नियंत्रण एक बड़ी चुनौती थी - नीतीश

पिछले विधान सभा के चुनाव के दौरान बिहार की जनता से मैंने एक वादा किया था कि मैं राज्‍य में कानून के शासन को पुन: बहाल करूँगा । ये कतई आसान न था । मुझे इस प्रयास में उस मिथक को तोड़ना था कि बिहार में अपराध नियंत्रण किसी के वश में नहीं है । मैं इसके लिये कृतसंकल्‍प था किन्‍तु मुझे इस बात का ख्‍याल रखना था‍ कि हमें इस उद्देश्‍य की प्रा‍प्ति कानून के दायरे में ही करनी थी । विगत में देश के विभिन्‍न भागों से आयी खबरों के कारण मुझे इस बात का इल्‍म था कि कानून-व्‍यवस्‍था के नियंत्रण के नाम पर अक्‍सर मानवाधिकारों का उल्‍लंघन होता है । इसी लिये मुझे यह सुनिश्चित करना था कि हमारी लक्ष्‍य प्राप्‍ति की दिशा में इस प्रकार की चूक न हो । अपराध नियंत्रण के संदर्भ में सर्वप्रथम मेरा ध्‍यान आर्म्‍स एक्‍ट के अंतर्गत दायर किये उन हजारों मामलों की तरफ गया जो वर्षों से लंबित थे । आर्म्‍स एक्‍ट के अंतर्गत तीन साल तक की सजा का प्रावधान है और इन मामलों में मुख्‍यत: राज्‍य के पुलिसकर्मी ही गवाह होते हैं । मैंने महसूस किया कि इन केसों का शीघ्र निष्‍पादन संभव है ------ अगर उनसे जुड़े गवाहों की उपस्थिति न्‍यायालयों में सुनिश्चित की जाए । हमारी सरकार ने तत्‍पश्‍चात बिहार पुलिस मुख्‍यालय में एक विशेष कोषांग की स्‍थापना ऐसे ही सारे मामलों के निष्‍पादन एवं इनसे जुड़े गवाहों को न्‍यायालयों में उपस्थित कराने के लिए की------ जिससे कानून तोड़ने वालों को समुचित सजा मिल सके । मैंने अधिकारियों की निर्देश दिया कि गवाहों को उपस्थित कराने के लिए वे यथासंभव न्‍यायालय से एक से अधिक तिथि की मांग न करें । मेरा ऐसा मानना है कि न्‍याय करना न्‍यायालय का कार्य है किन्‍तु सरकार का यह दायित्‍व है कि वह त्‍वरित न्‍याय के हेतु समुचित व्‍यवस्‍था करें । इस दिशा में हमारी सरकार ने न्‍यायालयों ऐसे कई गवाहों की उपस्थिति भी सुनिश्चित कराई जो झारखंड राज्‍य की स्‍थापना के बाद वहॉं चले गये थे । हमारे इन प्रयासों का जल्‍द असर हुआ और आर्म्‍स एक्‍ट के हजारों मामलों का निष्‍पादन त्‍वरित गति से हुआ । इस संदर्भ में मैं अपना-पराया भूल गया । इस बात से शीघ्र ही सभी अवगत हो गये कि कानून अपना काम करने लगी है । अपराधियों के बीच जुर्म करने के बाद कानून की पहूँच से दूर बने रहने का गुमान खत्‍म होता दिखने लगाA इन प्रयासों से आम लोगों में एक संदेश गया और उनमें सरकार के प्रति विश्‍वास जागृत हुई । उन्‍हें यह अहसास हुआ कि अब कानून तोड़ कर सजा से बचना किसी के लिये संभव न हो । तत्‍पश्‍चात राज्‍य के विभिन्‍न क्षेत्रों में बहुत ऐसे लोग, जो किसी न किसी पुराने मामलों में सजा दिलाने के लिये न्‍यायालयों में उपस्थित होना चाहते थे] अब खासे भयमुक्‍त हो कर आगे आने लगे । इससे कानून तोड़ने वालों को भी समझ में आ गया कि हमारी सरकार अपराध नियंत्रण हेतु कितनी सजग है । जिन्‍हें अपनी काले शीशे चढ़े वाहनों की खिड़कियों से बंदूके दिखाने का शौक था या फिर उन्‍हें जिन्‍हें शादी-विवाह के अवसर पर शामियाने में अपनी गैर-लाईसेंसी हथियार से गोली दागकर शक्ति प्रदर्शन की अभिरूचि थी यह समझने में कतई वक्‍त नहीं लगा । सन 2006 में मैंने लंबित मामलों के त्‍वरित निष्‍पादन हेतु एक मींटिग आहूत की जिसमें पटना उच्‍च न्‍यायालय के मुख्‍य न्‍यायाधीश और अन्‍य न्‍यायाधीशों के अलावे सभी जिलाधीश, पुलिस अधीक्षक और लोक अभियोजक शामिल हुये । मेरी जानकारी में भारत में ये अपने प्रकार की पहली पहल थी । हमने एक 'एक्‍शन प्‍लान' के तहत हजारों लंबित मामलों की सुनवाई हेतु 'स्‍पीडी ट्रायल' की व्‍यवस्‍‍था की, जिसके कारण हजारों मुजरिमों को सजा मिली । कई मामलों की सुनवाई जेल प्रांगण में भी शुरू की गई । इन मामलों में हुये त्‍वरित कार्यवाही से अपराधियों में कानून के प्रति भय हुआ । मैंने तो बस यह संदेश दिया था कि हमारी सरकार अपराध नियंत्रण की दिशा में किसी तरह की कोताही बर्दाश्‍त नहीं करेगी । इस संदर्भ में माननीय न्‍यायालयों एवं न्‍यायिक प्रक्रिया से संबद्ध प्रबुद्ध मानस का सहयोग सराहनीय रहा । आपको भी खुशी होगी कि अब तक के हमारे शासन काल में एक भी संप्रदायिक दंगे या जातीय संघर्ष की घटना नही हुई है । हमनें प्रत्‍येक जिलाधिकारियों एवं पुलिस अधीक्षकों को स्‍पष्‍ट निर्देश दिया हुआ है कि समाज में शान्ति एवं सद्-भाव बरकरार करना उनकी व्‍यक्तिगत जिम्‍मेदारी है । जब हमनें बिहार में शासन की कमान संभाली तो हमनें महसूस किया कि हमारे थानों में संसाधन का नितांत अभाव है । अगर कोई नागरिक कोई शिकायत दर्ज कराने जाता था तो उससे कहा जाता था कि वह स्‍वयं कागज की व्‍यवस्‍था करे । हमारी सरकार ने थानों के रख-रखाब के लिये एक विशेष वार्षिक कोष का गठन किया । इन तमाम प्रयासों से हमें एक भय-मुक्‍त समाज बनाने में मदद मिली । वर्षों बाद लोग देर रात तक अपने परिवार के सदस्‍यों के साथ सड़क पर पु:न दिखने लगे । एक वक्‍त था जब समाज में भय इस कदर व्‍याप्‍त था कि पटना के रेस्‍त्ररां में बमुश्किल एक या दो ग्राहक रात्रि में देखे जाते थे । अब आलम यह है कि लोंगों को होटलों में प्रवेश के लिये कतार में लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है । यहॉं तक कि लोग परिवार सहित नाईट शो में भी सिनेमा हॉल में फिर से दिखने लगे हैं । मुझे यह कहने में लेशमात्र झिझक नहीं है कि यह परिवर्त्तन मूलत: अपराध पर नियंत्रण होने के कारण संभव हो पाया । इसका प्रभाव अन्‍य क्षेत्रों पर भी हुआ । मुझे आजकल अक्‍सर कहा जाता है कि पटना में एक फ्लैट की कीमत देश के अन्‍य विकसित शहरों की तुलना में अधिक है । ऐसा तब हुआ जब पिछले वर्ष की आर्थिक मंदी ने बाजार को हर जगह प्रभावित किया । हमारे शासन काल के पहले पंद्रह वर्षो में बिहार में व्‍यापार के क्षेत्र में विकास नहीं हुआ था । लोग अपनी संपत्ति को कम दामों में बेचकर राज्‍य छोड़कर अन्‍यत्र बसने लगे । बिहार में उस समय में 'डिसट्रेल सेल' के अनेक उदाहरण अभी भी मिल सकते है । आज के बदले माहौल में व्‍यापार और व्‍यवसाय जिस गति से बढ़ते दिख रहे हैं उससे मुझे विश्‍वास है कि निकट भविष्‍य में हमारी व्‍यवस्‍था खुद अपनी सचेतक व नियंत्रक की भूमिका जिम्‍मेदारी पूर्वक निवार्ह कर सकेगी । विगत दिनों में गया में एक जापानी पर्यटक से दुष्‍कर्म का मामला सामने आया। जिस दिन मुझे इसकी जानकारी मिली मुझे उस रात नींद नहीं आयी । मैंने पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिया कि अपराधियों के खिलाफ सख्‍त कार्यवाही हो और इस मामले को निपटारा त्‍वरित न्‍यायालय में हो । इस मामले में आरोपियों का गिरफ्तार किया जा चुका है और न्‍यायालय में पुलिस ने आरोप-पत्र दाखिल भी कर दिया है । इस घटना में संलग्‍न सभी अपराधियों को शीघ्र सजा मिलेगी । यह सच है कि समाज से अपराध का खात्‍मा पूर्णत: नहीं किया जा सकता है किन्‍तु समुचित प्रशासिनक व्‍यवस्‍था एवं समयबद्ध न्‍याय के साथ उसका नियंत्रण संभव है । खास बात यह है कि जनमानस पटल पर सुरक्षा को लेकर लकीरें न दिखें । अवाम में असुरक्षा की भावना अपराधियों को ही बल देगी ।हमारी सरकार ने अपराध के लिये समुचित सजा सुनिश्चित कर जनता का विश्‍वास जीता है । बिहार में यह अब संभव नही है कि कोई व्‍यक्ति जुर्म करके सजा से बचा रह सके ।---ऐसी हमारी दृढ़संकल्पिता है । उन्‍हें अब इस बात का पता है कि कोई है जो उन पर नजर बनाये हुये है । नीतीश
Pl visit http://nitishspeaks.blogspot.com/ for other post of Hon'ble CM of Bihar Sri Nitish Kumar

Sunday, February 14, 2010

Bihari youth to develop course curriculum for US varsities

PATNA: A linguist, M J Warsi, currently teaching in the department of Asian and Eastern Languages and Literatures, Washington University, has been assigned to develop course curriculum of South Asian languages, particularly Hindi and Urdu for US universities.
Warsi hailing from Kusheshwar Sthan village in Darbhanga district has been given a grant of US $ 25000 to develop course curriculum funded by a grant from the US department of education’s International Education and Graduate Programme Service.
“The project would be completed latest by August this year. The course design would be based on communicative method which is very modern and scientific way of teaching languages and linguistic courses,” he told TOI from Washington.
“I belong to a place in Bihar, where there in no electricity, road and safe drinking water. Being a proud Bihari, I am fortunate to get important assignment to design course curriculum for the best universities of US,” he said.
A gold medalist from Aligarh Muslim University (AMU) and a West Bengal Urdu Academy award holder, Warsi has also authored many books to make people understand the efficacy of common contact with regard to languages and culture.
Besides his academic commitment, Warsi has also been very actively involved with the community on the campus. He has been described as an “unsung hero” by the students of Berkeley University for his “extraordinary contribution” to academic and personal matters.
He has been chosen as a role model by undergraduates of the Berkeley-based university in a survey conducted to identify those staff persons who went beyond their duty to assist students in academic and personal matters.
Warsi’s journey has been a long and tumultuous one marked by obstacles, dedication and tremendous courage in the face of great adversities. He has to his credit 23 papers and five books, besides many articles.

Courtesy - ToI

Friday, February 5, 2010

IAS officer from Bihar demystifies cryptic British crosswords

A Bihar cadre IAS officer, Vivek Kumar Singh, has come out with a much awaited comprehensive book on how to solve cryptic crosswords. The book titled ‘Understanding Cryptic Crosswords- a step by step guide’ has just been released at the World Book Fair in Delhi by Macmillan, its publisher. As per the author, the book is meant for that intelligent Indian, who is, generally, sharp enough to crack the most complex puzzles of the world, but who is compelled to throw up his hands in frustration when seeking a re-affirmation of his brilliance and command over language through the thrill of vanquishing a crossword. It aspires to demystify the enigma of cryptic crosswords in a lucid, step-by-step manner, so that at the end of an year, even that reader, who has not yet embarked upon an enchanting odyssey into the crossword trail, can at the very least, contemplate doing so. The book doesn't aspire to make a master out of a layman. It just hopes to make a beginner out of a non-starter. Priced at Rs 155 only, it has been touted as a book ‘which will take cryptic crosswords, from the remote columns of a few newspapers in the country, to the living rooms of every literate Indian household!’
Perhaps the first of its kind in the world, in terms of its concept and content, it is designed to be used as a primer, a workbook, a refresher capsule and a reference book, all rolled into one, depending on the needs and skills of the user. It is divided to be studied and worked upon in 52 sessions, so that a person who uses it for self-learning, can use it once a week for a full year so that, at the end of it, he can slowly but steadily, grasp the nuances of cryptic crosswords, without any external help. The main objective of the book is, however, to provide mandatory extra-curricular input for school students of Class VIII and above, who can be ‘taught crosswords’ by the English teachers, using the sessions as once-in-a-week classroom sessions. For amateur crossword enthusiasts, the exercises in the book can be used as a refresher course. The professional cryptic crossword buffs can use the book as a ready-reckoner.

Brief Introduction of Vivek Kumar Singh


Vivek Kumar Singh, started off as an amateur crossword-maker at the Lal Bahadur Shastri Academy of Administration, Mussoorie, where as a probationer in 1989-90, he made crosswords for the Hobbies Club and the Nature Lover’s Club. Thereafter, he first created crosswords professionally for the Career and Competition Times. Since then, he has regularly contributed cryptic crosswords for national magazines like Swagat (the Air-India in-flight magazine), Alive, Woman’s Era, Exotica, Heal and Discover India. He has got copyright for Crymple Crosswords, which are regularly featured in the Sunday Pioneer newspaper.
Vivek’s passion for engaging with brain teasers found expression early in the form of a successful quizzer. Through his school and college, he has won over a hundred prizes in Quizzes, Watchword and Dumb Charades. He also participated in Quiz Time, the popular quiz programme on TV. A man of varied interests he has to his credit wins at, chess tournaments in Delhi and Bokaro , and badminton tournaments at Patna.
Vivek Kumar Singh is an Indian Administrative Service (IAS) Officer of 1989 batch. He has been serving as Secretary, Art, Culture and Youth to Government of Bihar since October 2007. He is also the CEO of Bihar Foundation. Earlier he has served as Labour Commissioner and Secretary, Information and Public Relations to Government of Bihar. He was District Magistrate at Pakur(Jharkhand) and Rohtas (Bihar). Before joining the IAS, he was an IFS probationer, subsequent to a brief stint as Mgt Trainee(Admn), SAIL.
He studied at St Michael’s High School, Patna and later graduated in Physics from Delhi University.


Courtesy - PTI