प्रवासी भारतीय दिवस करीब आ रहा है। केंद्रीय मंत्री श्री व्यालार रवि अपने सन्देश में कहते हैं - "मुझे बताते हुए ख़ुशी हो रही है की नॉन रेसिडेंट इंडियनस को वोट देने से सम्बंधित बिल संसद ने पास कर दिया है।" हो सकता है एन आर आई के लिए ये ख़ुशी की बात हो, पर क्या वैसे प्रवासियों को वोट देने का अधिकार नहीं है जो अपने ही देश में अपनी ज़मीन से दूर रहते हैं?
मुंबई में रह रहे हसन कहते हैं - इच्छा तो बहुत होती है कि हम अपने क्षेत्र के लिए एक सही प्रतिनिधि चुनें पर इतनी जल्दी जा नहीं सकता, अभी ईद में ही वापस आया हूँ। कुछ इसी तरह कि बात गुडगाँव के एक मल्टी नेशनल कंपनी में काम करने वाले एक इंजिनियर आलोक कहते हैं - दुर्गा पूजा, दिवाली और छठ में से किसी एक पर्व में ही जा पाऊंगा। पर्व के समय टिकेट मिलना बहुत मुश्किल होता है। अभी छठ का टिकट मिला है, पर उस वक़्त मेरे इलाके में चुनाव हो चूका होगा। चाहकर भी भाग नहीं ले सकता। एक अच्छे प्रतिनिधि से ही क्षेत्र का विकास संभव हो पाता है। और सबसे बड़ी बात अपनी पहचान की है। कोई अच्छा प्रतिनिधि ही अच्छी पहचान प्रस्तुत कर सकता है, जिसपे हम प्रवासी लोग भी गर्व कर सकें।
सिर्फ हसन और अलोक ही नहीं ऐसे तमाम लोग हैं जो किसी न किसी मज़बूरी की वजह से वोट नहीं दे पाते हैं । मज़बूरी चाहे नौकरी की हो या पैसे की या फिर हालत की । पर यह सत्य है करोरों लोग अपने उस अधिकार से वंचित रह जाते हैं जिस पे उनका तथा उनकी आने वाली पीढ़ी का भविष्य टिका होता है। ऐसी भीड़ में सिर्फ अपने राज्य से बाहर रहने वाले ही नहीं, अपने ही राज्य के दुसरे जिले में रहने वाले भी तमाम लोग शामिल हैं जो वोटिंग के अधिकार से वंचित रह जाते हैं।
आज जब एन आर आई लोगों के लिए वोट देने का अधिकार दिया जा रहा है तो यह सवाल उठाना भी लाजमी है की सरकार अपने ही देश में रहने वाले प्रवासियों की वोटिंग में भागीदारी सुनिश्चित करे। सम्प्रति केंद्र सरकार विदेशों में स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से एन आर आई को वोट देने की सुविधा देने वाली है। तो फिर कोई ऐसी व्यवस्था क्यूँ नहीं की जा सकती की प्रवासी लोग अपनी कर्मभूमि में रहते हुए भी अपने जन्मभूमि के लिए एक अच्छे प्रतिनिधि का चुनाव कर सकें। आज संचार क्रांति की धूम है। उसका प्रयोग किया जा सकता है। पहले लोग बैलट पेपर का इस्तेमाल करते थे, आज अनपढ़ लोग भी इवीएम् मशीन पे बड़ी ही आसानी से वोट दे रहे हैं। बदलाव आता है तो लोग धीरे-धीरे सीख ही जाते हैं। तो एक बदलाव इस क्षेत्र में और लाया जाये, जिससे की प्रवासियों की वोटिंग में भागीदारी हो सके। वो सिर्फ मजबूरियों की वजह से अपने इस बहुमूल्य अधिकार से वंचित न रह पायें।
आज तमाम सोशल नेट्वोर्किंग साइट्स पे लोग बिहार में होने वाले चुनाव के विषय में बात करते हैं, अपने सुझाव देते हैं, लोगों से अपील करते हैं की उन्हें चुने जो बेहतर हैं पर अपने वोट के बारे में मन मसोस कर रह जाते हैं। अगर सरकार और चुनाव आयोग इसतरह की कोई व्यवस्था कर पाए तो हो सकता है की नतीजा कुछ सकारात्मक निकले। एक सर्वे के मुताबिक लगभग ४५ से ५० लाख लोग २००९ में बिहार से बाहर गए। प्रतिवर्ष काफी बड़ी संख्या में लोग बिहार से बाहर जाते हैं। चुनाव आयोग के अनुसार आज बिहार में साढ़े ५ करोड़ मतदाता हैं। अगर पिछले चुनाओं के प्रतिशत पे ध्यान दें तो पाएंगे की औसतन २० से ३० प्रतिशत लोग ही वोट दे पा रहे हैं। तो क्या वोट ना दे पाने वालों में एक बड़ी संख्या उनकी है जो माइग्रेट कर गए हैं। तब तो यह और भी आवश्यक हो जाता है की माइग्रेट करने वालों को वोट देने की कोई व्यवस्था की जाये। अगर दुसरे नजरिये से देखेंगे तो क्या जो प्रतिनिधि चुन कर आते हैं वो सिर्फ मुठी भर लोगों द्वारा ही नहीं चुने जाते हैं? तो फिर कैसा लोकतंत्र हुआ यह? क्या ऐसी स्थिति में सरकार और चुनाव आयोग की जिम्मेदारी नहीं बनती की ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाये जिससे की एक वैसा प्रतिनिधि चुना जा सके जो ज्यादातर ( कम से कम ५०% से ज्यादा) लोगों द्वारा चुना जाये। तभी शायद लोकतंत्र अपने सही रूप में कहा जा सकेगा और प्रवासियों को वोट देने की व्यवस्था करना इसमें एक सार्थक कदम हो सकता है।
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