Saturday, November 6, 2010

प्रवासियों के पर्व Vs वासियों के पर्व

अमेरिका हो या इंग्लैंड, यु0ए0ई० हो या क़तर, कनाडा हो या नोर्वे या फिर मुंबई हो या बंगलुरु जहाँ भी बिहारी लोग जाते हैं अपनी संस्कृति को बरक़रार रखने का पूरा प्रयास करते हैं. भले ही कार्य करने का ढंग बदल जाता हो पर मूल में श्रद्धा वही होती है. हो सकता है अमेरिका, इंग्लैंड में दुर्गा, लक्ष्मी या गणेश की बड़ी मूर्तियाँ न मिल पायें, हो सकता है वहां बड़े-बड़े पंडाल और लाइटिंग की सुविधा न हो पर दिल में उत्साह वही रहता है, जिसे लेकर प्रवासी लोग अपने छोटे से समूह में ज़मा होते हैं और पूरे उत्साह से पर्व मनाते हैं. त्योहारों के मौसम के आते ही आप तमाम बिहारी संगठनों की वेबसाइट पे त्यौहार मिलन के कार्यक्रम की सूचना देख सकते हैं. लोग किसी रेस्टुरेंट, किसी पार्क या किसी के घर पे जमा होते हैं, एक दूसरे को मुबारकबाद देते हैं, भगवान की फोटो [कभी- कभी ये फोटो डिजिटल भी होती है] लगाईं जाती है, CD या DVD प्लयेर पर मन्त्रों का उच्चारण होता है, पर दिल में श्रद्धा उतनी ही होती है, जितना वो बिहार में रहते हुए रखते हैं. इन आयोजनों में मेहँदी प्रतियोगिता, म्यूजिकल चेयर इत्यादि का आयोजन किया जाता है. बच्चों को देवी, देवता का रूप देकर सजाया जाता है. केक काटा जाता है. यदा-कदा DJ का भी प्रबंध होता है. बिहार से सम्बंधित फिल्मों को दिखाया जाता है. यूँ कहें तो वहां उपलब्ध सुविधा के हिसाब से जितना हो सके बिहार के रंग में रंगने की कोशिश की जाती है.

अमेरिका में रहने वाले एक मित्र ने ऐसे ही एक आयोजन में बिहार से आने वाले एक मित्र के हाथों 'अनरसा' (बिहार में मिलने वाली एक मिठाई) मँगवाया था. ओवेन में पके लिट्टी चोखा का भी इंतजाम था. तमाम तरह के लज़ीज़ व्यंजन थे. पर आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उन व्यंजनों के बीच अनरसा सबसे जल्दी ख़त्म हो गया था और लोग फिर भी उसकी ही डिमांड कर रहे थे. ओवेन में पके लिट्टी-चोखा में अपने घर में कोयले पे पकने वाले लिट्टी-चोखा का स्वाद खोज रहे थे. ऐसे त्योहारों के मौकों पर होने वाले इस मिलन में तमाम तरह के व्यंजनों के बीच लिट्टी-चोखा और अनारसा का होना ही इस बात को साबित करता है कि प्रवासी लोग पर्व के मौके पे पूरी तरह से अपने बिहार के रंग में रंगने की कोशिश करते हैं. अभी हाल में ही अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, बहरैन, UK में दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था. अब दिवाली मनाई जाने वाली है. ऑस्ट्रेलिया के एडिलेड तथा सिडनी में दिवाली मिलन पूरे उल्लास से मनाया गया है।

वहीँ बिहारवासियों ने भी अपने अंदाज में दुर्गा पूजा मनाई और दिवाली तथा छठ की तैयारी चल रही है. बिहार में होने वाली दुर्गा पूजा को आप पटना की दुर्गा पूजा के माध्यम से मेरे पिछले पोस्ट में देख चुके हैं. जिन्होंने नहीं देखा है वो कृपया इस लिंक पे जाएँ - http://biharfoundation.blogspot.com/2010/10/blog-post_17.html. आगे अब दिवाली धूमधाम से मनाई जा रही है. जगह-जगह लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों के दुकान सज गए हैं. लोग अपने-अपने घरों की रंगाई-पुताई करवा रहे हैं. परदे कैसे लगेंगे, दीवारों पर कौन सा रंग चढ़ेगा, दिवाली में रंगोली कैसी सजेगी, छत पे कैंडिल कैसा लगेगा, जलते-बुझते बल्बों की लड़ियों को कहाँ पे लगायें. ऐसी तमाम छोटी-बड़ी चीज़ों पे घर में बहस होती है. फिर सबकी सहमति से निर्णय लिया जाता है. दीपों की सजावट से घर को रौशन करना है ताकि माँ लक्ष्मी घर में प्रवेश करें. पंडित जी की अडवांस बुकिंग चल रही होती है. पटाखों की दुकाने सज गयी हैं. बच्चों ने पापा मम्मी की नाक में दम कर दिया है. मुझे तो बम ही लेना है. फुलझरी की रौशनी से उतना मज़ा नहीं आता, जितना बम की आवाज से आता है. पूरा मोहल्ला गूंज उठता है. पड़ोस के अंकल की गुस्से भरी आवाज से तो और मज़ा आता है. पटाखा पहले से नहीं फोड़ेंगे तो पता कैसे चलेगा की दिवाली आ गयी है. ऐसे दृश्य आम हो जाते हैं. हमारे बचपन में भी कुछ ऐसा ही होता था. पहले शिवकाशी से बने पटाखे आते थे. मुर्गा छाप पटाखें. अब तो चाइनीज पटाखें हैं. अनार से अब रंग-बिरंगी रौशनी निकलती है. फुलझरियां और बम का फ्यूज़न हो गया है. पहले रौशनी निकलती है, बाद में धमाके की आवाज भी आती है. हमारे समय में ऐसा गलती से हुआ करता था, पर अब तो ऐसे पटाखें डिमांड से बनते हैं.

त्योहारों के आते ही प्रोडक्ट्स पे ऑफरों की बाढ़ आ जाती है. टीवी के साथ वाशिंग मशीन फ्री. सोने के गहने लेने पे एक गणेश जी फ्री. और न जाने क्या-क्या. धनतेरस को तो कुछ खरीदना ही पड़ता है. इतनी मंहगाई बढ़ गयी है, की लोग असमंजस में पड़ गए हैं की क्या लें. पर कुछ तो लेना ही है, इसलिए बोरिंग रोड हो या एग्जिबिसन रोड या फिर पटना मार्केट या हटुआ मार्केट सभी जगह भारी भीड़ चल रही है. ऐसा ही हाल लगभग हर शहर का होता है. दुकानदारों को फुर्सत नहीं है. आपको अपना सामान मिल गया तो बड़ी खुशनसीबी. नहीं तो दुकान वाले को भला बुरा कहते हुए दूसरे दुकान में घुसिए. धनतेरस के दिन मेरी बीबी ने भी फरमाइश की - घर जल्दी आ जायियेगा, तनिष्क में चलेंगे. मन में डर हुआ कि पता नहीं कितनी जेब ढीली होगी. पर रिवाज़ है भाई. कुछ न कुछ तो लेना ही पड़ता है. वरना लक्ष्मी जी (घरवाली भी और मंदिर वाली भी) नाराज़ हो जाएँगी. और भला लक्ष्मी माता को नाराज कौन करना चाहेगा. इसी लक्ष्मी के लिए तो वासियों को प्रवासी बनना पड़ता है. घर के बाकी लोग पीछे छूट जाते हैं. दोस्त यार सब रह जाते हैं.
पर्व के समय ये कमी खलती है. वासी माता-पिता, प्रवासी बच्चों को मिस करते हैं. काश इस बार तो बेटा दिवाली में साथ होता, वहीँ प्रवासी बच्चे भी वासी माता-पिता को याद करते हैं (इस पर एक आपबीती घटना सुनाऊंगा कभी) काश घर जाते तो छठ के ठेकुआ, पिडुकिया तो खाते. घाट पे जाते. बहनें भैया दूज पर अपने भाइयों को याद करती हैं. बजरी-लड्डू कौन खायेगा इस बार. शायद इसी कमी को पूरा करने के लिए लोग परदेस में भी इक्कठे हो जाते हैं। एक दूसरे में उन रिश्तों को तलाशते हैं। जिस तरह संभव हो पाए उसी तरह पर्व मनाते हैं।
अक्सर वासी लोग प्रवासियों को देख कर सोंचते हैं कि काश हम भी अमेरिका, इंग्लैंड जा पाते. खूब पैसे कमाते पर जरा प्रवासियों से भी तो पूछ कर देखिये. पर्व तो वहां भी मना ही लेते हैं पर मन में यही सोंच होती है कि काश हम भी घर पे होते. ये डिसाइड करते की कौन सा रंग लगेगा. दोस्तों से मिलते, मेला घूमते, ये करते, वो करते, काश! हम भी घर पे होते.

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